जैविक खेती में उपयुक्त होने वाले जीवाणु

माइकोराइजा 
माइकोराइजा एक फंगस है।
जिसका कार्य पौधों की जड़ो के बीच परस्पर सम्बन्ध बनाना होता हैं। माइकोराइजा पौधों की जड़ो में जाकर उसकी जड़ो का विकास करता हैं । माइकोराइजा से जड़ो की विकास से हमें क्या फायदा होता हैं। हम जब बोवनी करते है तो बोवनी में हम बीज के साथ साथ खाद और भी महत्वपूर्ण तत्व डालते हैं। मगर वो महत्वपूर्ण तत्व 40 से 50 प्रतिशत तक ही आपके पौधों को मिलता है क्यू की जड़ो का विकास एक सिमित मात्रा में ही बढ़ता है। और जो भी महत्वपूर्ण तत्व जड़ो के संपर्क में आती है वह तत्व ही पौधे को मिल पाते है माइकोराइजा पौधे की जड़ों का विकास करता है और उन्हें फैलाता है जिससे पौधे को अधिक से अधिक मात्रा में महत्वपूर्ण तत्व प्रदान होते हैं।

 *माइकोराइजा के फायदे* :

01. जब हमारे पौधों को अधिक मात्रा में महत्वपूर्ण तत्व प्रदान होंगे तोह वह पौधा अधिक मजबूत और स्वस्थ होगा और पौधा सवस्थ होगा तोह उपज भी अधिक होगी। 

02. हम जो खाद या महत्वपूर्ण तत्व जैसे सल्फर या अन्य तोह उसका पूरा लाभ हमारी फसल को मिलता है जिससे हमारा खाद और मेहनत दोनों बेकार नहीं जाती और हमे अच्छी उपज भी मिलती है ।

3. हमारे पौधे की जड़े मजबूत रहती है जिससे उनकी सहनशीलता बड़ जाती है तोह वह खराब मौसम या किसी रोग से लडने की क्षमता अन्य फसलों से अधिक रहती है ।

 *नोट* : इसका उपयोग बीज और खाद में मिला कर न करे क्यू की यह बहुत छोटे दानो का होता है। छोटे होने की वजह से वह आपकी बोवनी मशीन से जल्दी गिर जायेगा और सही मात्रा में उपयोग नहीं हो पयेगा।
 
*कुछ सावधानियां भी रखनी है* 
उत्पादन हेतु छायादार स्थान का होना ज़रूरी है। जिससे कि सूर्य की किरणें ढ़ेर पर सीधी नहीं पड़ें। ढ़ेर में उचित नमी बनाए रखें। 25-30 डिग्री सेन्टीग्रड़ तापमान का होना ज़रूरी है। समय-समय पर ढ़ेर को पलटते रहना चाहिए।

 *खेत में प्रयोग करने की विधि* 
उपरोक्त विधि से तैयार ट्राइकोडर्मा को बुवाई से पूर्व 20 किलो ग्राम प्रति एकड़ की दर से मृदा में मिला देते है। बुवाई के पश्‍चात भी पहली निराई गुड़ाई के समय पर भूमि में इसे मिलाया जा सकता है । ताकि यह पौधों की जड़ों तक पहुँच जाए।

 *किन फसलों पर होता ट्राइकोडर्मा का उपयोग* 
ट्राइकोडर्मा सभी पौधे व सब्जियों जैसे फूलगोभी,कपास, तम्बाकू, सोयाबीन, राजमा, चुकन्दर, बैंगन, केला, टमाटर, मिर्च, आलू, प्याज, मूंगफली, मटर, सूरजमुखी, हल्दी आदि के लिये उपयोगी है। 

 *कैसे करें उपयोग* 
ट्राइकोडर्मा कार्बनिक खाद के साथ उपयोग कर सकते हैं। कार्बनिक खाद को ट्राइकोडर्मा राइजोबियम एजोस्पाईरिलियम, बेसीलस, सबटीलिस फास्फोबैक्टिरिया के साथ उपयोग कर सकते हैं। ट्राइकोडर्मा बीज या मेटाक्सिल या थाइरम के साथ उपयोग कर सकते है।टैंक मिश्रण के रुप में रासायनिक फफूंदीनाशक के साथ मिलाया जा सकता है।

 *ट्राइकोडर्मा के लाभ* 
रोग नियंत्रण
पादप वृद्धिकारक
रोगों का जैव- रासायनिक नियन्त्रण
बायोरेमिडिएशन

 *जरूरी सावधानियां
-मृदा में ट्राइकोडर्मा का उपयोग करने के 4 -5 दिन बाद तक रासायनिक फफूंदीनाशक का उपयोग न करें।
-सूखी मिट्टी में ट्राइकोडर्मा का उपयोग न करें।
-ट्राइकोडर्मा के विकास एवं अस्तित्व के लिए उपयुक्त नमी बहुत आवश्यक है।
-ट्राइकोडर्मा उपचारित बीज को सीधा धूप की किरणों में न रखें
-ट्राइकोडर्मा द्वारा उपचारित गोबर की खाद (फार्म यार्ड मैन्योर)को लंबे समय तक न रखें।

खेती की बढ़ती लागत को कम करने के लिए किसान भाई कई तरह के प्राकृतिक उपाय अपना सकते हैं। 

 *ट्राइकोडर्मा बनाने की विधि*
बताने की कोशिश कर रहा है। हालांकि किसान भाईयों को सलाह दी जाती है कि ट्राइकोडर्मा बनाने से पहले ट्राइकोडर्मा के उत्पादन की ग्रामीण घरेलू विधि में कण्डों (गोबर के उपलों) का प्रयोग करते हैं। खेत में छायादार स्थान पर उपलों को कूट कूट कर बारिक कर देते हैं। इसमें 28 किलो ग्राम या लगभग 85 सूखे कण्डे रहते हैं। इनमें पानी मिला कर हाथों से भली भांति मिलाया जाता है। जिससे कि कण्डे का ढेर गाढ़ा भूरा दिखाई पड़ने लगे। अब उच्च कोटी का ट्राइकोडर्मा शुद्ध कल्चर 60 ग्राम इस ढेर में मिला देते हैं। इस ढेर को पुराने जूट के बोरे से अच्छी तरह ढक देते है और फिर बोरे को ऊपर से पानी से भिगो देते हैं। समय समय पर पानी का छिड़काब बोरे के ऊपर करने से उचित नमी बनी रहती है। 12-16 दिनों के बाद ढ़ेर को फावडे से नीचे तक अच्छी तरह से मिलाते हैं। और पुनः बोरे से ढ़क देते है। फिर पानी का छिड़काव समय समय पर करते रहते हैं। लगभग 18 से 20 दिनों के बाद हरे रंग की फफूंद ढ़ेर पर दिखाई देने लगती है। इस प्रकार लगभग 28 से 30 दिनों में ढ़ेर पूर्णतया हरा दिखाई देने लगता है। अब इस ढ़ेर का उपयोग मृदा उपचार के लिए करें। इस प्रकार अपने घर पर सरल, सस्ते व उच्च गुणवत्ता युक्त ट्राइकोडर्मा का उत्पादन कर सकते है। नया ढ़ेर पुनः तैयार करने के लिए पहले से तैयार ट्राइकोडर्मा का कुछ भाग बचा कर सुरक्षित रख सकते हैं और इस प्रकार इसका प्रयोग नये ढ़ेर के लिए मदर कल्चर के रूप में कर सकते हैं। जिससे बार बार हमें मदर कल्चर बाहर से नही लेना पडेगा

 *जैविक तरीके से भी हम बीजों का उपचार कर सकते हैं। बीजों का जैविक तरीके से उपचार करने के लिए कई तरीके हैं उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं।* 👇

1. 10 लीटर पानी में 2 किलो नमक घोलें और उसमें एक अंडा या आलू फेंककर चैक करें कि यह डूबता है या नहीं। यदि अंडा/आलू तैरता है तो नमक मिलाना बंद कर दें। बीज को बोने से पहले इस नमकीन पानी में डुबोकर अच्छे बीज छांट लें। बीजों को 20 लीटर बीज अमृत में 12 घंटों के लिए डुबो दें। फिर इन बीजों को छांव में सुखा लें। फिर ये बीज बोने के लिए तैयार हैं।
2. 750 मि.ली. दूध को 2.5 लीटर पानी में मिलाकर एक बर्तन में रखें। बीज को एक सूती कपड़े में बांध लें और 6 घंटों के लिए इस दूध और पानी वाले घोल में डुबोकर रखें।

3. 500 मि.ली. गऊ मूत्र को 2.5 लीटर पानी में मिलायें बीज को इस घोल में आधे घंटे के लिए डुबोकर रखें। फिर ये बीज बोने के लिए तैयार हैं।

4. ट्राइकोडर्मा 250 ग्राम को 2 लीटर गुड़ वाले पानी में मिलाकर एक खुले बर्तन में रखें। अब बीज को इसमें मिलायें और फिर बीज बोने के लिए तैयार हैं।

 *एजोसिपरिलम कल्चर* 
इसके जीवाणु पौधों के जड़ों के आसपास और जड़ों पर समूह बनाकर रहते हैं तथा पौधों को वायुमंडलीय नेत्रजन उपलब्ध कराते हैं। इस कल्चर का प्रयोग ज्वार, बाजरा, महुआ, मक्का, घास एवं चारे वाली फसलों के पैदावार बढाने के लिए करते हैं। इस जीवाणु खाद के प्रयोग से 15-20 किलोग्राम नेत्रजन प्रीत हेक्टेयर की प्राप्ति होती है। इसके अतिरिक्त इसके जीवाणु कई प्रकार के पादप होर्मोनेस छोड़ते है जो पौधों के वृद्धि के लिए आवश्यक है। एजोसिपरम जड़ों के विस्तार एवं फैलाव में भी सहायक होते हैं, जिससे पोषक तत्वों, खनिजों एवं जल के अवशोषण क्रिया में वृद्धि होती है जिन फसलों में अधिक पानी की मात्रा दी जाती है वहाँ ये विशेष लाभकारी होते हैं।

 *जीवाणु खाद से बीज उपचारित करने की विधि* 
सभी प्रकार के जीवाणु खाद से बीज उपचारित करने का तरीका एक जैसा ही है। एक पैकेट (100 ग्राम) कल्चर आधा एकड़ जमीन में बोये जाने वाले बीजों को उपचारित करने के लिए पर्याप्त होता है।

बीजों को उपचारित करने के लिए सबसे पहले आधा लिटर पानी में लगभग 100 ग्राम गुड डालकर खूब उबालें और जब इसकी चाशनी तैयार हो जाए, तो इसे ठंडा करने के बाद एक पैकेट कल्चर (जीवाणु खाद) डालकर अच्छी तरह मिला दें। अब यह बीजों को उपचारित करने वाला घोल बन जायेगा। इसके बाद आधा एकड़ भूमि के लिए पयार्प्त बीज को पानी से धोकर सुखा लें। कल्चर के बीजों के उपर थोडा-थोड़ा डालकर स्वच्छ स्थान, अखबार या कपड़े पर हाथों से इस प्रकार मिलाएं की बीजों के उपर कल्चर की एक परत चढ़ जाए। उपचारित बीजों को छाया में सुखाकर शीघ्र ही उसकी बुवाई कर दें।

जिन फसलों की पौध (बिचड़ा) लगाई जाती है उनकी रोपाई करने से पूर्व पौधों की जड़ों को उक्त घोल में डुबोकर उपचारित किया जा सकता है।

 *जीवाणु खाद के प्रयोग से लाभ* 
कल्चर के प्रयोग से फसलों की पैदावार में वृद्धि होता है।
जीवाणु खाद के प्रयोग से रासायनिक उर्वरक की बचत होती है।
इसके प्रयोग से भूमि की उर्वरा शक्ति में वृद्धि होता है।
कल्चर द्वारा उपचारित करने से बीजों की अनुकरण क्षमता बढ़ जाती है।
दलहनी फसलों के बाद अन्य दूसरी फसलों को भी नेत्रजन प्राप्त होता है।
सावधानियां
जीवाणु खाद को धूप एंव अधिक गर्मी से बचाकर सुरक्षित स्थान पर रखें। कल्चर जिस फसल का हो उसका प्रयोग उसी फसल के बीज के लिए करें।
कल्चर पैकेट खरीदते समय उसका नाम एवं उत्पादन तिथि आवश्य देख लें।
उपचारित किए गये बीज को छाया में सुखाकर बुआई शीघ्र कर दें।
जीवाणु खाद की क्षमता बढ़ाने के लिए फास्फेट (स्फुर) खाद की पूरी मात्रा मिट्टी में जरुर मिलावें।
झारखण्ड की मिट्टी अम्लीय स्वाभाव की है इसलिए चुने का व्यवहार अवश्य करें यह बीजों को उपचारित करने के बाद चूने का परतीकरण उस पर आवश्य करें।
 *जीवाणु खाद के जीवाणु उदासीन मिट्टी में काफी सक्रिय होती है।**

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